­
­

श्रीमती की नजर......( कुमुद कुमार)

May 10, 2017

जब तक हम अविवाहित थे यह बात हमारी समझ से परे थी कि पत्नियों की नजर अपने पतियों पर कम उन की पौकेट पर अधिक होती है. तब यह सुन कर ऐसा लगता था मानो पत्नी कोई सुलताना डाकू हो जो पति की जेब पर डाका डाल कर दरियादिली से अपने और अपने बच्चों के ऊपर पैसा लुटाती हो.

जो भी हो, अविवाहित रहते हुए हम कभी भी इस बात से इत्तेफाक न रख सके कि पत्नी की नजर पति की पौकेट पर होती है. तब तो शादी के खयाल मात्र से ही मन में खुशी का बैंडबाजा बजने लगता था. ‘आह, वो ऐसी होगी, वो वैसी होगी’ यही सोचसोच कर मन में लड्डू फूटते रहते थे.

पत्नी का मतलब हमारी दृष्टि में एक सच्ची जीवनसाथी जो पति का खूब खयाल रखती है उस से अधिक कुछ और नहीं था. पत्नी का पौकेटमार होना हमारे लिए सोचना भी पाप था. वह उम्र ही ऐसी थी.

यह सही है कि जब तक नदी में गोता न लगा ले तब तक उस की गहराई की केवल कल्पना की जा सकती है, वास्तविक गहराई नहीं जानी जा सकती. ऊंट को अपनी ऊंचाई का सही आभास तब तक नहीं होता जब तक वह पहाड़ के नीचे से न निकल जाए.

हर मर्द शादी से पहले अपनेआप को बड़ा ऊंचा ऊंट समझता है और जब शादी के पहाड़ के नीचे से गुजरता है तब उसे अपने वास्तविक कद का पता चलता है. बड़ेबड़े हिटलर पत्नी के आगे पानी मांगते हैं जब वह टेढ़ी या तिरछी नजर से देखती है.

हम भी बचपन से अपने को बड़ा पढ़ाकूपिस्सू और कलमघिस्सू समझते रहे. अपनेआप को बड़ा ज्ञानी, ध्यानी समझते रहे. हमें ऐसा लगता था जैसे सारी दुनिया का ज्ञान हम ने ही बटोर रखा है. कोई रचना प्रकाशित हुई नहीं कि बल्लियों उछलने लगते थे.

शादी के बाद जब एक रचना छप कर आई तो श्रीमतीजी पर रोब गालिब करने और अपने लेखक होने की महानता को सत्यापित कराने के लिए उस रचना को महत्त्वपूर्ण सर्टिफिकेट की तरह उन के सम्मुख प्रस्तुत किया. श्रीमतीजी ने पहले तो उस रचना को बड़ी ही उपेक्षित नजर से देखा. इस से हमारा दिल दहल गया. लेकिन हमारा सम्मान रखते हुए 2-3 लाइनें पढ़ीं और फिर पूछा, ‘‘डार्लिंग, इस का कितना पैसा मिलेगा?’’

हम श्रीमती के प्रश्न और प्रश्नवाचक नजर से कुछ असहज हुए और फिर अचकचाते हुए बोले, ‘‘ये तो छापने वाले जानें.’’

यह सुनते ही श्रीमतीजी ने रचना को एक ओर रखते हुए कहा, ‘‘माल (रचना) तुम्हारा और कीमत जानें पत्रिका वाले, यह भी कोई बात हुई.’’

हम ने श्रीमतीजी को थोड़ा समझाते हुए कहा, ‘‘अभी हम इतने बड़े कालिदास नहीं हुए कि अपनी रचनाओं की कीमत स्वयं तय करें. वे छाप देते हैं, क्या यह कम बड़ी बात है.’’

‘‘टाइमवेस्ट और कुछ नहीं,’’ श्रीमतीजी हमें बालक की तरह नसीहत देती हुई बोलीं.

उस दिन हमें कुछकुछ लगा कि पत्नियां पौकेटमार भी होती हैं, पैसे पर नजर रखती हैं.

उस दिन हमें सचमुच यह भी लगा कि अपुन की औकात क्या है? मन तो हुआ कि सब लिखनापढ़ना छोड़ दें और डिगरी कालेज की लेक्चररी में ही अपनी जिंदगी काट दें. पर लिखने का कीड़ा जिसे काटता है वही जानता है. इस के काटने के दर्द में कितना मजा होता है.

जब भी श्रीमतीजी हमें लिखता हुआ देखतीं तो मुंह बिचका कर निकल जातीं, जैसे हम न जाने कितना घटिया और मनहूस काम कर रहे हों. उस समय श्रीमतीजी की नजर में हम स्वयं को कितना लज्जित महसूस करते, उस का वर्णन करना मुश्किल है. इस अपमान से बचने का हमारे पास एक ही रास्ता बचा था कि श्रीमतीजी की नजरों से बच कर चोरीछिपे लिखा जाए.

एक दिन ऐसा हुआ कि हम ने अपना सीना कुछ चौड़ा महसूस किया. हुआ यह कि 2 रचनाओं के चैक एकसाथ आ गए. इन चैकों की रकम इतनी थी कि श्रीमतीजी की पसंद की साड़ी आराम से आ सकती थी. हम ने श्रीमतीजी को मस्का लगाते हुए कहा, ‘‘लो महारानीजी, तुम्हारी साड़ी आ गई.’’

साड़ी का नाम सुनते ही श्रीमतीजी ऐसे दौड़ी चली आईं जैसे भूखी लोमड़ी को अंगूरों का गुच्छा लटका नजर आ गया हो. आते ही चहकीं, ‘‘कहां है साड़ी? लाओ, दिखाओ?’’

हम ने दोनों चैक श्रीमतीजी को पकड़ा दिए. श्रीमतीजी ने दोनों चैकों की धनराशि देखी और थैंक्यू बोलते हुए हमारे गाल पर एक प्यारी चिकोटी काट ली. हम इस प्यारी चिकोटी से ऐसे निहाल हो गए जैसे हमें साहित्य अकादमी का साहित्यरत्न अवार्ड मिल गया हो.

हमें एकबारगी यह ख्वाब आया कि श्रीमतीजी यह तो पूछेंगी ही कि किन रचनाओं से यह धनराशि प्राप्त हुई है. लेकिन उन्होंने यह पूछने की जहमत नहीं उठाई. बस, कसी हुई नजर से इतना कहा, ‘‘जहां से ये चैक आए हैं वहीं रचना भेजा करो. मुफ्त वालों के लिए लिखने की जरूरत नहीं है.’’

हम मान गए कि श्रीमतीजी को हमारी रचनाओं से मतलब नहीं, उन की नजर सिर्फ आने वाले चैकों पर है.

इस के बाद जब कभी भी पोस्टमैन आता तो हम से पहले श्रीमतीजी उस के दर्शन के लिए पहुंच जातीं. एक दिन पोस्टमैन की आवाज आते ही श्रीमतीजी रसोई से दौड़ती हुई दरवाजे पर पहुंचीं. हम भी चहलकदमी करते हुए श्रीमतीजी  के पीछेपीछे दरवाजे तक पहुंचे.

पोस्टमैन बोला, ‘‘बाबूजी, आप का मनीऔर्डर है.’’

श्रीमतीजी हमें बिना कोई अवसर दिए तुरंत बोलीं, ‘‘कितने का है?’’

‘‘मैडमजी, 50 रुपए का.’’

‘‘क्या? क्या कहा, 50 रुपए का?’’ श्रीमतीजी ऐसे मुंह बना कर बोलीं जैसे पोस्टमैन से बोलने में गलती हो गई हो.

हम ने स्थिति को संभालते हुए कहा, ‘‘अरे भाई, ठीक से देखो. आजकल 50 रुपए कोई नहीं भेजता, 500 रुपए का होगा.’’

हमारे कहने पर पोस्टमैन ने एक बार फिर से मनीऔर्डर को देखा. धनराशि अंकों में देखी, शब्दों में देखी. फिर आश्वस्त हो कर बोला, ‘‘बाबूजी, 50 रुपए का ही है.’’

जैसे ही पोस्टमैन ने 50 रुपए का नोट निकाल कर श्रीमतीजी की ओर बढ़ाया तो वे खिन्न हो कर बोलीं, ‘‘यह दौलत इन्हीं को दे दो, बच्चे टौफी खा लेंगे.’’

पोस्टमैन ने व्यंग्यात्मक मुसकराहट के साथ वह 50 रुपए का नोट हमारी ओर बढ़ा दिया. मेरे लिए तो वह 50 रुपए का नोट भी किसी पुरस्कार से कम नहीं था. लेकिन श्रीमतीजी के खिन्नताभरे व्यंग्यबाण और पोस्टमैन की व्यंग्यात्मक हंसी ऐसी लग रही थी जैसे हिंदी का लेखक दीनहीन, गयागुजरा और फालतू का प्राणी हो जिस को कई प्रकार से अपमानित किया जा सकता हो और बड़ी आसानी से मखौल का पात्र बनाया जा सकता हो.

उस दिन श्रीमतीजी की नजर में हम 50 रुपए के आदमी बन कर रह गए थे.

You Might Also Like

0 comments